हिन्दी भाषी-साठोत्तरी उपन्यास विधा में राजेन्द्र यादव के प्रस्तुत आयामू
Pages:15-18
विजय प्रधान एवं शिखा शर्मा (हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, वनस्थली, राजस्थान)
राजेन्द्र यादव नयी कहानी के हस्ताक्षर कहलाते हुए नई कहानी के प्रमुख सुत्रधारों में विशिष्ट स्थान रखते है। यादव जी ने हालांकि स्वतन्त्रता मिलने के दो-चार वर्ष पहले कहानी लिखना आरम्भ किया और साहित्य सृजन को अपने धर्म-कर्म के रूप में अपनाया। साहित्य के साठोत्तरी काल में सम्पूर्ण सर्वांगीण लेखन की पुष्टता में प्रतिष्ठित हुए। यादव जी ने साहित्य के सन्दर्भ में जिन रचनात्मक अनुभूतियों की उपेक्षा को अनुभव किया वे ही इनकी भिन्न-भिन्न कलाकृतियों में सृजन क्रिया का अंग बनकर आई है। आपने साहित्य के आन्तरिक-बाह्य परिवेश को जानने के बाद ही, बौद्धिक धरातल पर परखने के बाद ही व्यक्त किये हैं। स्वतन्त्रता के बाद 1960 के चरण को साठोत्तर युग समय के अन्तर्गत साहित्य के वर्गीकरण में रखा गया है। इस समय भारतीय जन-मानस पर पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति यहाँ के जीवन पर आरोपित की गयी। तत्कालीन समय की विषमता में -स्वार्थ, अविश्वास, मोहभंग, कुढ़न, सेवा-हीनता और रिश्वतखोरी व्याप्त होने लगी थी। इस विषमता की पृष्ठभूमि पर हिन्दी-उपन्यास का नवीन उत्थान हुआ। हिन्दी उपन्यास की विकास-यात्रा में राजेन्द्र यादव मुख्य रूप से स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास का प्रतिनिधित्व करते हैं। साहित्य में विकास के सभी स्तर की प्रवृत्तियों की जड़े बहुत गहरी और फैली हुई रहती हैं। वस्तुतः आने वाले समय की कोई भी प्रवृत्ति अतीत से प्रेरणा पाकर ही उद्दत होती है साथ ही ना मिलने वाली प्रवृत्तियों के कारण की पृष्ठभूमि भी वही तैयार हो जाती है। साठोत्तर युग में देश की विषम परिस्थितियों के संवेदनशील और भविष्य के सुनहरे सपने देखने वाले उपन्यासकारों की जो नई पीढ़ी उभरी, वह क्षोभ और आक्रोश से भरी हुई थी। उनके सारे सपने चूर-चूर हो चुके थे क्योंकि तत्कालीन वातावरण में बदलाव-सुधार के नारे-वादे दुहाई अर्थहीन लगी। इस समय सामाजिक और वैयक्तिक चेतना के संतुलित संयोजन से जनमानस में समाजकल्याण की भावना का संचार करना आजादी के बाद के उपन्यासकारों का कत्र्तव्य बन गया। ‘‘राजेन्द्र यादव भी उपन्यासकार के इस विशेष कत्र्तव्य के प्रति विशेष जागरूक थें। अपने जीवन दर्शन और दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना और अपनी कृति को ही परिवर्तित करके प्रकाशित करना इसका प्रमाण है। नाश में से ही निर्माण को मानने वाले’’ यादव जी क्रान्तिकारी अवश्य हैं, साथ-साथ समझौतावादी भी नजर आते हैं। उनका कहना है, ‘‘उनके समकालीन आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं ने व्यक्ति के आदर्शवादी सपनों को नष्ट कर उसे समझौतावादी बनने के लिए बाध्य किया है।’’ समाजवादी और व्यक्तिवादी रचना-धर्मिता के बीच का मध्यवर्ती रास्ता अपनाते हुए यादव जी ने नए रचनाकारों को भी अछूते पहलुओं को अनावृत करने की प्रेरणा देते हुए साहित्य विकास में सहयोग किया इसी कारण नये प्रयोगों में रूचि रखने वाले रचनाकार राजेन्द्र यादव से हिन्दी साहित्य ने नये आयामों की आशा रखी थी।
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Pages:15-18
विजय प्रधान एवं शिखा शर्मा (हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, वनस्थली, राजस्थान)