नारी का अन्तद्र्वन्द्व के साथ कथा साहित्य में नारी की बदलती भूमिका

Pages:24-27
विजय प्रधान एवं शिखा शर्मा (हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, वनस्थली, राजस्थान)

मेरा स्वयं का विचार है कि नारी गुणों का प्रभाव का मापदण्ड सभ्यता/संस्कृति को मापने का पैमाना का गुण रखता है। वास्तव में किसी समाज की प्रगति को उस समाज में शामिल महिलाओं के प्रगति से मापना चाहिए। पूर्व परम्परा और आधुनिक परम्परा में नारी के अस्तित्व का स्व द्वन्द्वइसलिए पनपा कि उपर-उपर से देखने पर ऐसा लगता है कि पूर्व परम्परा में औरतें ज्यादा सुरक्षित थीं और कम स्वतन्त्र। आधुनिकता में ज्यादा स्वतन्त्र बनी तो कम सुरक्षित हो गयी। नारी के अन्तद्र्वन्द्वको पुरा और आधुनिकता के बीच असंतुलन के द्वन्द्व के सन्दर्भ से साहित्य में बदलती नारी पात्रों की भूमिका को देखा है। नारी की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि वह अपनी भूमिका स्वयं कभी तय नहीं करती ना परम्परा में, ना ही आधुनिकता में। नारी की भूमिका सदैव ही अपनी जरूरतों को ध्यान में रखकर ताकतवर पुरूष या चली आ रही व्यवस्था में तय किया जाता रहा है। साहित्य में नारी विषय पर अनेकों विचार-वर्णन यत्र-तत्र बिखरे मिलेंगे परन्तु साहित्य के विशाल महासागर से केवल एक पुरूष रचनाकार तथा रचित रचनाओं में प्रस्तुत नारी पात्रों की भूमिका पर नजर डालेंगे तो उनके दृष्टिकोण से भी भूमिका के बदलाव का आंकलन अधिक स्पष्ट हो सकेगा।

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Pages:24-27
विजय प्रधान एवं शिखा शर्मा (हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ, वनस्थली, राजस्थान)