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गीता में यज्ञ ज्ञान की सार्थकता

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Pages:61-62
किशनाराम बिश्नोई (अध्यक्ष, गुरु जम्भेश्वर धार्मिक अध्ययन संस्थान, गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा)

विश्व के सभी धर्मों में यज्ञ का वर्णन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अवश्य हुआ है। परन्तु हिन्दू धर्म में यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। हिन्दू धर्म एवं दर्शन के गं्रथों में यज्ञ के विषय सबसे ज्यादा बताने वाली श्रीमद्भगवद् गीता है। गीता के अनेक श्लोकों में यज्ञ की सर्वश्रेष्ठ परिभाषा श्रीकृष्ण ने दी है। गीता में अनेक प्रकार के यज्ञों का वर्णन है। किन्तु गीता में यह बताया गया है कि सब यज्ञों में ज्ञान यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। अन्य यज्ञों में व्यमय यज्ञ कहा है। यदि हम किसी निर्धन की सहायता करना चाहें तो उसके लिए धन की अपेक्षा रहती है। किन्तु ज्ञानयज्ञ के लिए किसी द्रव्य की अपेक्षा नहीं है। ज्ञान के लिए केवल विवेक आवश्यक है। गीता के अनुसार ज्ञान होने पर समस्त कर्म समाप्त हो जाते हैं। कर्म को छोड़ना श्रीकृष्ण को अभीष्ट नहीं है। अतः यहाँ कर्म के समाप्त होने का अर्थ होगा कि ज्ञानी का लक्ष्य कर्म नहीं होता अपितु अन्तःकरण की शुह् िहोता है। सत्य की प्राप्ति में तीन बाधक तŸव हैं – मल, विक्षेप और आवरण। कर्म के मल, उपासना से विक्षेप और ज्ञान से आवरण दूर होता है। अतः कर्म, भक्ति और ज्ञान तीनों का अपना महŸव है। ज्ञानी के लिए कर्म का महŸव इसलिए नहीं है कि कर्म द्वारा अभीष्ट पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं अपितु कर्म का महŸव इसलिए है कि उसमें अन्तःकरण का मल नष्ट हो जाता है। इस प्रकार ज्ञानी अज्ञानी कर्म दोनों ही करते हैं, किन्तु अज्ञानी की दृष्टि पदार्थ पर रहती है और ज्ञानी की दृष्टि चिŸा शुह् िपर रहती है। पदार्थ पर दृष्टि हट जाना ही कर्म का समाप्त हो जाना है। यह तभी होता है जब ज्ञान हो जाए-

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Pages:61-62
किशनाराम बिश्नोई (अध्यक्ष, गुरु जम्भेश्वर धार्मिक अध्ययन संस्थान, गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा)