हरियाणवी लोकगीतों में ब्याह के गीतों में पारिवारिक मूल्य और रीति-रिवाज
Pages:205-207
Suman (Department of Hindi, Govt. College for Women, Hisar, Haryana)
वैदिक काल से ही विवाह संस्कार को मानव जीवन का अत्यंत आवश्यक संस्कार कहा गया है।यह सोलह संस्कारों में से तेरहवां संस्कार माना गया है। विवाह संस्कार स्त्री और पुरूष का अटूट बंधन है जो धर्म तथा नियम से आबद्ध होकर जीवन पर्यंत, बल्कि जन्म-जन्मांतर तक का संबंध बन जाता है।1. विवाह की आवश्यकता केवल वासना तृष्ति के लिए नहीं मनुष्य धर्म के समुचित रूप से पालन के लिए है। 2. विवाह का दूसरा उद्देश्य स्त्री सन्तान उप्तत्ति द्वारा पितृऋण से उऋण होकर अपनी वंश बेल को बढ़ाना है तथा तीसरा उद्देश्य स्त्री एवं पुरूष के पवित्र साहचर्य द्वारा पारिवारिक सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन धारा को स्वस्थ एवं सुखद बनाना है। भारत में विवाह के समय अनेक रस्मों का निर्वाह किया जाता है जिसमें उन रस्मों से संबंधित अनेक प्रकार के गीत गाए जाते हैं यही प्रथा हरयाणवी लोकगीतों में देखने को मिलती है। जिनमें देवी-देवताओं, वर, वधु, सगाई, भात, बान, बनवाड़ा, मेहंदी, घुड़चढ़ी, बारात, फेरे व विदाई आदि के लोकगीत सम्मिलित हैं। हरियाणा में ही नहीं सम्पूर्ण भारत में किसी भी मांगलिक अवसर पर गीतों का आरम्भ देवी-देवताओं के गीतों से ही किया जाता है। इसमें माता, देेवी, पित्रर, हनुमान आदि के गीत गाए जाते हैं।
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