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डाॅ. लक्ष्मी नारायण लाल के नाटक ’मादा कैक्टस’ में प्रतीक-योजना

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Pages:149-150
रूबी चैधरी (हिंदी विभाग, फिरोज गंाधी मैमोरियल स्नात्तकोतर महाविद्यालय, मंडी आदमपुर, हिसार, हरियाणा)

डाॅ. लक्ष्मी नारायण लाल द्वारा रचित नाट्य साहित्य में ’मादा-कैक्टस का प्रमुख स्थान है। इस नाटक का सर्वप्रथम मंचन 6 नवम्बर, 1956 को आका शवाणी रंगशाला इलाहाबाद के तत्वाधान में आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल के मंच पर स्वयं लेखक के निर्देशन में किया गया था। आलोच्य नाटक में प्रतीकों की प्रमुख विद्यमान है। इन प्रतीकों के विशय में स्वयं लेखक ने मादा कैक्टस की भूमिका में स्पश्ट किया है कि ’’ बात टेढी थी, इसलिए इसमें प्रतीकों का सहारा लेना पड़ा। संगीत से लेकर कार्य तक, घटनाओं से पात्रों तक, नीलाम के बाजे से अनाथालय के बच्चों के गीत तक, मादा कैक्टस से मुर्गाबी चिड़िया तक। आप कह सकते हैं कि अजी, इतने प्रतीक है! प्रतीक की भाशा कौन समझे?पर मैं कहता हॅंू प्रतीक की अपनी कोई अलग भाशा नहीं होती, प्रतीक को स्वयं नाटक की प्रकृत भाशा और सहज बोली है- ऐसी भाशा जो हम नित्य प्रति के जीवन में बोलते हैं। चेतन अचेतन रूप में जिन्हें हम सम्प्रेशणीयता और बोध तत्व के माध्यम बनाते हैं। इस तरह में प्रतीक हमारी अभिव्यक्ति के जीवन आधार हैं। अतः हमारे व्यक्तित्व के अंग हैं, जैसे स्वप्न अंग हैं और नाटक में प्रतीक का धर्म केवल यह है कि वह समवेध बात को, तत्य को, शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक सीधे और शक्तिशाली दंग तथा सुंदर रूप से

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Pages:149-150
रूबी चैधरी (हिंदी विभाग, फिरोज गंाधी मैमोरियल स्नात्तकोतर महाविद्यालय, मंडी आदमपुर, हिसार, हरियाणा)