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गीता में लोकसंग्रह की अवधारणा

Original price was: ₹ 202.00.Current price is: ₹ 200.00.

Pages:69-70
किशनाराम बिश्नोई व नितेश कुमार (अध्यक्ष, गुरु जम्भेश्वर धार्मिक अध्ययन संस्थान, गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा)

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रयोजन युक्त कर्म करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि युद्ध से विमुख होना क्षत्रिय के लक्ष्ण नहीं है। अर्जुन पाप के बंधन के भय से युद्ध नहीं करना चाहता। श्रीकृष्ण उसे अनेक युक्तियों से कर्म-विज्ञान समझाते हैं। यज्ञ के लिए कर्म किया तो बंधन का कारण नहीं बनता। अब श्रीकृष्ण अर्जुन के सम्मुख एक तीसरा विकल्प रखते हैं कि लोक संग्रह के भाव से किया गया कर्म भी बंधन का कारण नहीं बनता। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे अपने अस्तित्व के लिए दूसरों पर निर्भर रहना होता है। पैदा होते ही यदि माता बच्चे को न संभाले तो बच्चा जीवित ही नहीं रह सकता। बड़ा हो जाने पर भी मनुष्य दूसरों पर बहुत बड़ी मात्रा में निर्भर है। गेहूँ पैदा किसान करता है, बेचता व्यापारी है, आटा पीस कर एक तीसरा व्यक्ति देता है और रोटी बनाकर घर की महिला देती है, तब जाकर कहीं भोजन मिलता है। इसके अतिरिक्त अर्थोपार्जन करे बिना भी मुझे भोजन नहीं मिल सकता। पास में पैसा ही नहीं है तो बाजार में उपलब्ध होने पर भी मैं अनाज क्रय कैसे करूंगा। अर्थोपार्जन की प्रक्रिया में उस व्यक्ति का मुझ पर उपकार है जिसने मुझे नौकरी दे रखी है। व्यापार करता हूँ तो ग्राहक के उपकार से ही मेरा व्यापार चलता है। अभिप्राय यह है कि बिना दूसरों के सहयोग के मेरा अस्तित्व ही संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या यह उचित होगा कि मैं दूसरों का सहयोग ले तो लूं किन्तु उन्हें सहयोग दूं नहीं?बिना कर्म किये दूसरों का सहयोग करना कैसे संभव है?दूसरों का सहयोग करना ही लोकसंग्रह का उपाय है, जिसके लिए कर्म करना आवश्यक है। अतः गीता में कहा कि लोकसंग्रह की दृष्टि से भी कर्म करना ही चाहिये। अर्जुन विवेकपूर्ण चिंतन करके कहता है कि साधारण मनुष्य कर्म कर ही रहे हैं और उनके कर्म से समाज चल ही रहा है और यदि एक मनुष्य कर्म छोड़ भी देगा तो समाज को क्या अन्तर पड़ जाएगा?इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि वह अपने को श्रेष्ठ मानता है तब तो उसका दायित्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि जो श्रेष्ठ पुरुष करते हैं सामान्य मनुष्य उसी का अनुकरण किया करते हैं। अर्जुन जैसा विशिष्ट व्यक्ति कर्म छोड़ देगा तो सभी कहंेगे कि हमें कर्म करने की क्या आवश्यकता है। श्रीकृष्ण स्वंय अपना उदाहरण देकर कहते हैं कि उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं करना है, वे कृत कृत्य हो चुके हैं, फिर भी वे कर्म कर रहे हैं क्योंकि यदि वे कर्म छोड़ देंगे तो सभी मनुष्य उनका अनुकरण करते हुए वैसा ही करेंगे। परिणाम यह होगा कि समाज छिन्न-भिन्न हो जायेगा। इसका उŸारदायित्व भगवान् श्रीकृष्ण पर आ जायेगा।

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Pages:69-70
किशनाराम बिश्नोई व नितेश कुमार (अध्यक्ष, गुरु जम्भेश्वर धार्मिक अध्ययन संस्थान, गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार, हरियाणा)