शिवानी के उपन्यास ‘सुरंगमा’ में नारी के विभिन्न रूप
Pages:142-144
Pooja Rani (CMJ University, Shillong, Meghalaya)
‘नारी’ मनुष्य का पोषण करने वाली तथा समाज की संचालन शक्ति है। मानवता के आदर्श का निर्माण नारी के हाथों से ही सम्पन्न होता है। नारी क्षमा, दया, न्याय, करूणा तथा सहनशीलता की संजीव प्रतिमा बन देवी रूप में प्रतिष्ठित रही है परन्तु भारत के पुरूष प्रधान समाज ने अपनी अहमन्यता के कारण नारी केा व्यक्तित्वहीन करने का प्रयास किया। अपनी संचालन सूत्रिका में पुरूष ने नारी को पीछे धकेला परन्तु समय के बदलाव के साथ-साथ नारी फिर से जीवन की धुरी का स्थान लेने लगी। शिक्षा और प्रगति के पथ पर नारी पुरूष के पीछे नहीं अपितु उसके साथ चलने लगी। नारी हिन्दी उपन्यासों में विवेचन का मुख्य आधार रही है। नारी ने साहित्य को गति तथा साहित्यकार को प्रेरणा दी है। साहित्य में नारी ह्नदय की व्यथा, संवेदना तथा पीड़ा का सही रूप नारी ही चित्रित कर सकती है। क्योंकि संसार में रहते हुए वह स्वयं भी यथार्थ को भोगती है। इसी कारण उपन्यास में नारी स्वभाव का जितना अच्छा चित्रण एवं विकास स्वयं लेखिकाओं द्वारा सम्भव हुआ है, वैसा पुरूष लेखकों द्वारा नहीं हो सकता। आधुनिक उपन्यास लेखिकाओं के नारी चित्रण में ‘शिवानी’ अपना विशिष्ट स्थान रखती है। शिवानी के उपन्यासों में नारी जीवन के विभिन्न रूपों का बहुत ही स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया है। नारी अपने जीवन में माँ, बेटी, बहन, पत्नी और प्रेमिका आदि विभिन्न रूपों में आकर अपने त्याग से मनुष्य के जीवन को पूर्ण बनाती है। नारी के प्रति शिवानी का दृष्टिकोण महादेवी वर्मा के मत से साम्य रखता है। महादेवी जी कहती है ‘‘पुरूष का जीवन संघर्ष से आरम्भ होता है और स्त्री का आत्म-सर्मपण से। जीवन के कठोर संघर्ष में जो पुरूष विजयी प्रमाणित हुआ, उसे स्त्री ने कोमल हाथों से जयमाल देकर स्निग्ध चितवन से अभिनन्दित करके और स्नेह प्रवण आत्म निवेदन से अपने निकट पराजित बना डाला।’’1
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Pages:142-144
Pooja Rani (CMJ University, Shillong, Meghalaya)