हरियाणवी लोक गीत: एक परिचय

Pages:192-197
रेणु शर्मा (पी.एचडी. हिन्दी, सोनीपत, हरियाणा)

’’लोकगीत दो शब्दों ’लोक’ और ’गीत’ के मेल से बना है जिसका सामान्य अर्थ लोक के गीत से लिया जाता है। लोक से जुड़े गीतों को ही लोकगीतों की संज्ञा मिलती है। जहाँ लोक शब्द का प्रयोग जीव, स्थान, भुवन, साधारण जनता, जनता के कार्य कलाप समस्त प्रजाजन आदि के लिए किया जाता है वहीं ’गीत’ शब्द का अर्थ सामान्यतः गेयता है। वस्तुतः ’गीता’ शब्द का अर्थ प्रायः उस कृति से है जो गेय है।’’1 अतएव कहा जा सकता है कि लोकगीत में गेयता तत्व का होना अनिवार्य है। संगीत और लय इसके जीवन है इसी कारण लोकगीत को स्वतः स्फूर्त की संज्ञा दी गई है ’आदिम लोकमानस के लिए काव्य का सर्वोत्तम लक्षण उसका संगीत तत्व अथवा गेयात्मकता थी। संगीतहीन काव्य मुक्त छंद अथवा लयहीनता, उसके लिए प्रत्यक्ष असंगतियां थी।2 यह भात भी दी गई है कि आदिमानस ने भी वाणी को गीत के ही रूप में सर्वप्रथम देखा था। इसीलिए गीत को मानव की सर्वप्रथम उपलब्धि माना गया है। आज भी लोकजीवन में लोकगीतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। माधुर्य, सरलता, रस और लय की प्रमुखता के फलस्वरूप हमारा लोकजीवन पूर्ण रूप से गीतों में लिपटा ही नजर आता है। पण्डित रामनरेश त्रिपाठी ने ठीक ही लिखा है कि ’’ग्रामीण (लोकगीत) हृदय का धन हैं, महाकाव्य मस्तिष्क का। ग्राम गीतों में रस है, महाकाव्य में अलंकार, उस स्वाभाविक है और अलंकार मनुष्य निर्मित।’’3 ’लोकगीत’ शब्द अंग्रेजी के ’फाकसांग’, जर्मनी के ’वाक’ शब्द का मूल हिंदी रूपान्तर है।4 अब मूल प्रश्न हमारे सामने उभर कर आता है कि जब गीतों का संबंध अथवा मूल तत्व गेयता है तो फिर इसका लोक साहित्य कैसा सम्बन्ध हो सकता है? डाॅ॰ विद्या चैहान के अनुसार – ’’हमारी निभ्रांत धारणा यह है कि संगीत और साहित्य में कलात्मक प्रभाव का कोई अंतर नहीं है, अंतर है स्वर और अर्थ की प्रधानता और अप्रधानता का। संगीत और साहित्य दोनों का मूल अधिष्ठान नाद है। एक में वह नाद शब्दों की सीमाओं को छु कर अपने प्रभाव संपादन के लिए पुनः अपने अपने स्थान की ओर लौट आता है और दूसरे में नाद शब्द तक पहुँच अपनी अर्थगत प्रभावशीलता के लिए वहीं टीक जाता है। दोनों का उद्गम हृदय है।’’5 अतएव कह सकते हैं कि गीत विद्या होने के बावजूद लोकगीत द्वारा जनजीवन से पूरी तरह जुड़ा है। लोकसाहित्य अथवा लोकगीतों की गेयता अथवा सामाजिकता के बिना कल्पना करना संभव नहीं है।

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रेणु शर्मा (पी.एचडी. हिन्दी, सोनीपत, हरियाणा)