सन्त नितानन्द के काव्य में बाह्याचार और बाह्याडम्बरों का खण्डन

Pages:119-120
सुदर्शन राठी (हिन्दी विभाग, महाराजा अग्रसेन काॅलेज फाॅर वुमन, झज्जर, हरियाणा)

संत नितानन्द का समय अठारहवीं शताब्दी रहा हैं। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही मुगल साम्राज्य अवनति की ओर जा रहा था। ओरंगजेब की मृत्यु के पश्चात आने वाले 52 वर्षो में आठ सम्राट दिल्ली सिंहासन पर बैठे। सामाजिक व्यवस्था के केन्द्र में बादशाह विराजमान था, उसके बाद मनसबदार तथा दुसरे कर्मचारी। सबसे नीचे श्रमजीवी और कृषक थे। सर्वसाधारण की दशा इतनी भयावह थी कि दूसरों को वस़़्त्र पहनाने वाले, सख्त परिश्रम करने वालें जुलाहें स्वयं वस्त्रहीन रहते थे। दूसरों की भूख मिटाने वाले किसान स्वयं भूखे रहते थे। नितानन्द जी का युग घोर अंधविश्वासों ओर सामाजिक विषमताओं का युग था। जनसाधारण हर जगह शोषण का शिकार था। समाज में नैतिकता का पतन हो चुका था और अंधविश्वास, रूढ़ियों और बाहयअंडबरों का बोलबाला था। ‘‘जैसे अबोध बालक-बालिका गुड़ियां-गुड्डों से अपना मन बहलाते रहते हैं, उसी प्रकार नितानन्द के समय का समाज देवता, द्वित, भवानी की उपासना में अपने कष्टो का परिहार करने की योजना बना रहा था। वास्तव में सत् भक्ति या सत् धर्म विलीन हो गया था। जीवन तम और कृत्रिमता से आवृत हो गया था।’’1

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Pages:119-120
सुदर्शन राठी (हिन्दी विभाग, महाराजा अग्रसेन काॅलेज फाॅर वुमन, झज्जर, हरियाणा)