वैदिक साहित्य में वाक्तत्व – एक विवेचन

Pages:92-93
Neelam Rani (Makdana, Bhiwani, Haryana)

वेद सम्पूर्ण ज्ञान के आदि स्त्रोत हैं। जिन्हें ब्रह्मा की सन्तान होने का गौरव प्राप्त है। वेदों के ज्ञानभंडार में मानव जाति के उत्थान के लिए जीवन के प्रत्येक पक्ष से प्रभूत सामग्री उपलब्ध होती है। वेदों में जो कुछ ज्ञान उपलब्ध है उसे बीज रूप कह सकते हैं। वह मनुष्य की बुद्धि को सोचने-विचारने लायक बनाता है और साथ ही ऐसा सूझ-बूझ देता है कि मनुष्य अपनी भलाई के नियम, उस बीज में से ढंूढ़ लेता है। प्रस्तुत शोध-पत्रा का विवेच्य विषय वेदों में वर्णित वाक्तत्त्व है जिसके विषय में प्रस्तुत शोध-पत्रा मंे विस्तार से बताया गया है – ‘ऋग्वेद’ के मण्डल 10, सूक्त 114, मन्त्रा 8, में कहा गया है- ‘‘यावद्ब्रह्म विष्ठितम तावती वाक्’’ अर्थात् जहाट्ट तक ब्रह्म व्याप्त है वहाट्ट तक वाणी का विस्तार है। यहाट्ट पर वाक् को ब्रह्मस्वरूप कहा गया है। जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है, अनन्त है और मात्रारहित है उसी प्रकार वाक् भी अनादि, अनन्त और मात्रारहित है। वेद कहता है – ‘‘गोस्तु मात्रा न विद्यते’’।1 अर्थात् वाणी की मात्रा नहीं है। इसी बात को ‘भर्तुहरि’ ने ‘वाक्यपदीय’ में इस प्रकार कहा है –

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Neelam Rani (Makdana, Bhiwani, Haryana)