लोकजीवन में संस्कृति एवं पर्यावरण
Pages:86-87
Suman (Department of Hindi, Govt. College for Women, Hisar, Haryana)
वेदों, उपनिशदों, मनुस्मृति तथा भरतमुनि के नाट्य शास्त्र में ’लोक’ शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग मिलता है। संस्कृत की लोक (दर्शन) $ ध´ प्रत्यय से निशपन्न ’लोक’ शब्द का अर्थ है ’देखने वाला’1। इस अर्थ के अनुसार समस्त जनसमुदाय लोक की परिधी में आ जाता है। शब्दकोशों के अनुसार ’’लोक शब्द भूलोक, स्वर्गलोक, पाताल लोक अर्थात् चैदह लोकों तथा मानव जाति का ज्ञापक है। ऋग्वेद में ’देहिलोकम’ का प्रयोग हुआ है यहाँ लोकम् का प्रयोग स्थान के लिये हुआ है। वेदों में लोक दो प्रकार के माने है – पार्थव और दिव्य।1 डाॅ॰ सत्येन्द्र का मत है कि ’’लोक मनुश्य समाज का वह वर्ग है जो अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पाण्डित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य और जो एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।2
Description
Pages:86-87
Suman (Department of Hindi, Govt. College for Women, Hisar, Haryana)