रीतिकालीन नीतिकवियों का सामाजिक दृष्टिकोण
₹ 202.00
Pages:44-46
सुनीता जांगिड़ (हिन्दी विभाग, राजस्थान यूनिवर्सटी, जयपुर, राजस्थान)
साहित्य समाज का दर्पण है, युगीन साहित्य की गतिविधि तत्कालीन परिस्थितियों से परिचालित होती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य के इतिहास में कहा है कि ‘‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है। रीतिकालीन कवियों का काव्य भी इस वृति से अछूता नहीं रहा। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वि. सं. 1700 से 1900 तक की मध्यावधि में रचित काव्य रूपी वृक्ष दरबारी परिवेश के आश्रय में ही पल्लवित, पुष्पित और फलीभूत हुआ। इन कवियों का अधिकांश जीवन राजदरबार मे आश्रयदाता की छत्रछाया में व्यतीत हुआ। इसलिए निकट सम्बन्धियों के पारस्परिक व्यवहार को इन्होंने प्रत्यक्षतः अनुभव किया, जिसकी झलक इनकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित हुई। 17वीं शताब्दी तक आते-आते भारतीय समाज की जातिव्यवस्था में काफी परिवर्तन हुआ। वेदविहित वर्ण और जाति व्यवस्था का अनुलंघनीय स्वरूप अस्वीकृत हो गया, समाज में वर्ग-वैषम्य शिखर पर था। समाज उच्च एवं निम्न वर्ग में विभक्त हो गया था; तत्कालीन परिवेश में सामन्तवाद का बोलबाला होने के कारण सामान्य जनता अभावग्रस्त अशिक्षित एवं अंधविश्वासी हो चली। समाज का निम्न वर्ग उत्पादन व सेवा कार्य करते हुए भी अपने उत्पादन का उपभोग नहीं कर पाता था। सुव्यवस्थित और कठोर कर-प्रणाली के कारण उत्पादन का अधिकांश भाग अभिजात वर्ग के अधीन था, साथ ही क्षेत्रीय जागीरदारी एवं जमीदारी का परम्परानुमोदित और हिन्दू व मुस्लिम समुदाय के पुरोहित वर्ग का भी हिस्सा बनता था। फलतः उत्पादन से जुडे़ निम्न समुदायों के पास इतना कम संसाधन शेष रहता था कि वे मुश्किल से अपना भरण-पोषण कर पाते थे।
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सुनीता जांगिड़ (हिन्दी विभाग, राजस्थान यूनिवर्सटी, जयपुर, राजस्थान)