मीरा के काव्य में माधुर्य भाव का अध्ययन

Pages:27-30
सुमन (हिन्दी विभाग, राजकीय महिला महाविद्यालय, हिसार, हरियाणा)

मीरा का काव्य, प्रेम, सौन्दर्य, संयोग और वियोग की भावनाओं से आद्यन्त आप्लावित है। उसमें आराध्य का नख-शिख वर्णन तथा वर्णनात्मक बाह्य जगत् का विवरण कम और अनुभूति चित्राण प्रधान रूप से पाया जाता है। मीरा के कीर्तन प्रधान, राग-रागिनी समृद्ध पदों में ‘नारीत्व’ के अकृत्रिम विरह, मिलन और पे्रमोद्गारों की प्रचुरता पाई जाती है। उनमें बौद्धिक कलाबाजी और काल्पनिक उड़ान की छाया तक नहीं दीखती, न अलंकारियों की सी अलंकारप्रियता ही कहीं दृष्टिगोचर होती है। उनके सभी पद स्वभावोक्ति की चरम सीमा को छूते से जान पड़ते हैं, अतः अलंकार प्रिय पंडितों उक्ति, फ्कविः करोति काव्यानि, स्वादं जानन्ति पंडिताः मीरा के काव्य की कसौटी नहीं हो सकती। उसमें तो हृदय का हृदय से व्यापार प्रधान है। ‘काव्य ग्राह्यं अलंकरात्। सौन्दर्य म्लंकारः।’ काव्य के शारीरिक सौंदर्य का समर्थक है और उससे वामन का प्रयोजन काव्य के मूत्र्तरूप-शब्द विन्यास- से है, किन्तु इस बाह्य के भीतर जो आन्तरिक प्राण प्रतिष्ठा का सौन्दर्य है, अभिव्य ंजन कौशल का जादू है, उसकी घोषणा कुन्तक ने ‘वक्रोक्तिः काव्य जीवितम्’ के रूप में की थी। रसानुभूति के क्षेत्रा में शाब्दिक-व्यंजना से ध्वनि व्यंजना की ओर किया जाने वाला यह महत्वपूर्ण संकेत है। पफलतः फ्वाक्यं रसात्मकं-काव्यम्य् कहकर साहित्यदर्पणकार कविराज विश्वनाथ ने रस को ही काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया था। यही ‘रस’ मीरा के काव्य की आत्मा में लबालब भरा हुआ है। मीरा के काव्य की कसौटी यही फ्रस तत्वय् है, उसका मूल उत्स, स्वरूप और प्रभाव दो दिशाओं में, दो रूपों में पाया जाता है।1

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सुमन (हिन्दी विभाग, राजकीय महिला महाविद्यालय, हिसार, हरियाणा)