मीरा की प्रेम-भावना

Pages:68-70
Reena yadav (Department of Hindi, Singhania University Pacheri Beri, Jhunjunu, Rajasthan)

मीरा के समष्टिरूप काव्य का मूल स्वर प्रेम है एवं उसके एकमात्र आलम्बन है श्रीकृष्ण। हे री मैं तो दरद दीवानी मेरी दरद न जाणै कोेय। घायल की गति जाणै की जिण लाई होय।। दरद की मारी बन-बन डोलूं बैद मिल्या नहीं कोय। मीरां की प्रभु पीर मिटै जब बैद सांवलिया होय।। मीरा की इस पंक्ति – ‘‘मेरो दरद न जाणे कोय’’ में तो मानो युग-युग की विरहिणी नारी की अकथ्य वेदना ही धनीभूत हो उठी है। मीरा के पद निश्छल प्रेम पीड़ा की ऐसी की रचनाएं हैं जिनमें कल्पना का कृत्रिम कला-विलास न होकर अनुभूति का सच्चा आवेग है। प्रेम की निर्धूम ज्वाला में जलते प्राणों के ये सिसकते उच्छवास हैं। प्रेमी के लिए प्रिय का यह विरह एक प्रकार का वरदान है। विरह की वर्तिका ही प्रेम की लौ को सतत प्रज्जवलित रखती है जिसके कारण एक क्षण के लिए भी प्रिय का विस्मरण नहीं होता। विरहिणी के लिए रात और दिन में कोई अन्तर नहीं है। रात को सारा संसार सुख की नींद में सोया रहता है, परन्तु इस प्रेम वियोगिनी की आंखों में नींद कहां? वह तो रात-रात भर जागकर आंसुओं की माला पिरोती है, नयनों के जलते दीपों से प्रियतम की नीराजना करती है। कैसी अनूठी है यह लगन।

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Reena yadav (Department of Hindi, Singhania University Pacheri Beri, Jhunjunu, Rajasthan)