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डाॅ. लक्ष्मी नारायण लाल के नाटक ’सूर्यमुख’ में गीत-योजना
Pages:274-276
रूबी चैधरी (हिंदी विभाग, फिरोज गंाधी मैमोरियल स्नात्तकोतर महाविद्यालय, मंडी आदमपुर, हिसार)
डाॅ. लक्ष्मीनारायण लाल नाटक की भाशा के विभिन्न आयामों को उजागर करने में सिद्धहस्त हैं। उन्होंने हिंदी नाटक को नवीन सर्जनात्मक उपलब्धियों से परिचित करवाकर एक नूतन नाट्य-धारा का प्रवर्तन किया, जिसमें वे गीत के माध्यम से यथार्थवादी भाशिक चेतना का आरम्भ करते हैं। नाटक में गीत-निर्माण की परम्परा आति प्रयोग रही है तथा डाॅ. लाल ने भी इस परम्परा का निर्वाह सफलता पूर्वक किया है। इस काल के रचनात्मक धरात का अध्ययन करने पर यह स्वीकार करना पड़ता है कि हिंदी नाटक में गीत का उन्मेश 1950 के आस-पास प्रारम्भ हो चुका था। इस गीत योजना के कारण अखिल भारतीय रंग चेतना का प्रचार हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात् अन्तर्राश्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान की महती आवश्यकता अनुभूत करते हुए नाटक में गीत के समावेश की आवश्यकता महसूस की गई। इस कारण से तत्कालीन हिंदी नाटकों में गीत-संगीत के क्षेत्र में उठने वाला यह आलोड़न वस्तुतः वर्तमान प्रयोगधर्मी नाटक की यात्रा का ही एक सबल पक्ष अभिव्यंजित करता है। नाटक में संवाद की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह संवाद गीत के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया हो, तो यह प्रेक्षकों पर अधिक प्रभाव डालने में सक्षम बन जाता है। डाॅ. लक्ष्मी नारायण लाल ने इस धारणा को ग्रहित कर अपने नाटकों मेें गीतों का अधिक से अधिक समावेश किया है।
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Pages:274-276
रूबी चैधरी (हिंदी विभाग, फिरोज गंाधी मैमोरियल स्नात्तकोतर महाविद्यालय, मंडी आदमपुर, हिसार)