कबीर का समाज-दर्शन

Pages:159-161
नीलम कुमारी (हिन्दी विभाग, फतहचन्द महिला महाविद्यालय, हिसार, हरियाणा)

आधुनिक अर्थ में कबीर को समाज सुधारक या समाज-द्रष्टा नहीं कह सकते। उनकी चेतना मूलतः आध्यात्मिक थी। वे समाज- रचना के लिए किसी प्रकार के सुधारवादी आंदोलन के पुरस्कर्ता न होकर मानव आत्मा की मुक्ति के लिए आध्यात्मिक संघर्ष करने वाले साधक थे। उनका सारा संघर्ष आसक्ति एवं तृष्णा के विरुद्ध था। वे ‘मन‘ को जीतने के लिए सन्तों और भक्तों को प्रेरित करते रहते थे। वे जब संसार में अनादि काल से व्याप्त दुःख के मूल कारण पर विचार करते थे तो उन्हें लगता था कि आसक्तियों पर जय प्राप्त न कर सकने के कारण ही सारा संसार दुःखी है। उन्होंने कहा है कि क्या गृही, क्या वैरागी सभी दुःखी हैं। ‘जोगी’, ‘जंगम’, ‘तपसी’, ‘अवधू’ सभी दुःखी हैं सभी ‘आसा’, ‘त्रिसना’ से ग्रस्त हैं। राजा हो या रंग दुःख की परिधि से बाहर कोई नहीं है। मनुष्यों की कौन कहे ‘ब्रह्मा’, ‘विष्णु’ और ‘महेश’ भी जिन्होंने सृष्टि के उद्भव और विकास का क्रम चलाया है-दुःखी हैं। आचार्य शुकदेव संसार के दुःख का अनुमान करके ही गर्भ से ही विरक्त होकर तपश्चर्या में लीन हो गये थे। इस संसार में मन को जीतने वाले संत ही सुखी हैं।

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नीलम कुमारी (हिन्दी विभाग, फतहचन्द महिला महाविद्यालय, हिसार, हरियाणा)