स्वामी दयानन्द का चिन्तन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
Pages: 520-524
महेन्द्र सिंह (इतिहास विभाग, दयानन्द काॅलेज, हिसार, हरियाणा)
स्वामी दयानन्द 19वीं शताब्दी में भारत के आभामण्डल पर उतरे, उस युग की प्रवृतियां व परिस्थितियां अलग थी। भारत व विश्व के सन्दर्भ में साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद मुख्य था। औद्योगिक क्रान्ति व कृषि क्रान्ति पश्चिमी यूरोप में आ चुकी थी। इसके बाद यूरोप के अन्य देशों, अमेरिका व जापान में भी यह दस्तक दे चुकी थी। यूरोप में राष्ट्रवाद उन्नत रूप में विकसित हो गया था एवं शस्त्रों की होड़ भी मुखर हो रही थी। यूरोपीय महाद्वीप की विभिन्न शक्तियों ने अपने से बड़े चारों महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिणी अमेरिका तथा छोटे महाद्वीप आस्ट्रेलिया पर साम्राज्यवादी-प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। इसी आधार पर वे अपनी भाषा-संस्कृति को जहां प्रसारित करने में सफल हो रहे थे, तो दूसरी ओर अन्य क्षेत्रों का दमन करने में भी सफल हो रहे थे। इस प्रक्रिया में सर्वाधिक दयनीय हालत एशिया व अफ्रीका की हो रही थी। भारत पर अंग्रेजी साम्राज्य होने के कारण यहां की स्थितियाँ भी भिन्न नहीं थी। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अंगे्रजों के विरूद्ध विद्रोह हुए, जिनमें सफलता नहीं मिली। इस कड़ी में 1857 का जन-विद्रोह भी हुआ, जिसका परिणाम दमन तो हुआ, लेकिन सरकार के लिए सचेत होने का सन्देश भी दे गया। जिसके बाद सरकार ने अपने रूख में बदलाव करने की घोषणा की तथा विक्टोरिया घोषणा में यहां तक कह दिया गया कि सरकार भारतीय प्रजा के साथ भेदभाव नहीं करेगी, बल्कि माय-बाप की भूमिका का निर्वाह भी करेगी। घोषणाओं के बाद भी सरकार की मूल प्रवृति में कोई बदलाव नहीं आया। दूसरी ओर 19वीं शताब्दी में सामाजिक-धार्मिक पूर्नजागर्रण भी उभरा, जिससे समाज का एक वर्ग जुड़ा भी। ऐतिहासिक दृष्टि से यह काल भारत व विश्व में आधुनिक काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में राज्य की प्रकृति पुलिस राज्य से कल्याणकारी भी बनी। वाणिज्यवाद, पूंजीवाद, सैन्यवाद के साथ-साथ विश्व का ध्रुवीकरण भी बदला जिसके परिणाम दोे विश्व युद्ध रहे। इन स्थितियों के बीच स्वामी दयानन्द ने राजनीति, समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था तथा सांस्कृतिक चिन्तन को नई दिशा दी। उनका चिन्तन इन सभी बिन्दुओं को आपस में समाहित भी करता था तथा प्रत्येक को अलग रूप में धारण भी करता था। स्वामी जी शासनतन्त्र के मनोविज्ञान को भी भांप गए थे तथा भारतीय समाज की वस्तु स्थिति से भी अवगत थे। उन्होंने इन दोनों पक्षों की सीमाओं को समझकर कार्य किया तथा अपना चिन्तन अभिव्यक्त किया। 1857 के जन-विद्रोह में दमन में जैसी पाश्विकता व अमानवीयता का अंग्रेजों ने प्रयोग किया, उसने भारतीयों को भयभीत कर दिया था, ऐसे में जनता को जगाना जरूरी था तो दूसरी ओर नवम्बर 1858 में महारानी विक्टोरिया ने जो घोषणा की, उसमें एक ओर भारतीयों के हितैषी होने का मुखोटा दिखाया गया था तो दूसरी ओर भय भी झलकता था कि अब सरकार ‘एक और 1857’ झेलने की स्थिति में नहीं थी। स्वामी जी ने इसी को अपने चिन्तन का औजार बनाया जो भारत में राष्ट्रवाद की लहर के रूप में उभरा।
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महेन्द्र सिंह (इतिहास विभाग, दयानन्द काॅलेज, हिसार, हरियाणा)