विजय तेंदुलकर के नाटकों में धार्मिक परिवेश
Pages:17-23
रीना शर्मा (हिन्दी विभाग, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक)
भारतीय साहित्य में ‘धर्म’ व ‘अर्थ’ को जीवन के चार उद्देश्यों में शामिल किया गया है, अतः साहित्य में धर्म व अर्थ दोनों का ही विशेष महत्त्व रहा है। ‘धर्म’ शब्द ‘धृ’ धातु में ‘मन’ प्रत्यय के योग से बना है जिसका अर्थ है-”जो धारण किया जाए।“1 कोशकारों ने धर्म को पुण्य, न्याय और आचार आदि का पर्याय माना है- ”धर्म पुण्ये यमे न्याये स्वभावाचार्योंः क्रतो।“2 ऋग्वेद में धर्म शब्द ‘धार्मिक विधि या क्रिया’3 ‘अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त नियम’4 एवं ‘आचरण विषयक निश्चित नियम व सिद्धान्त’5 आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। उपनिषदों में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग साधु कर्म सत्कर्म अथवा पुण्य कर्म 6 लिया गया है। धर्म को परिभाषित करते हुए तुलसीदास जी लिखते हैं- ”परहित सरिस धर्म नहीं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई ।।“7 महर्षि जैमिनी ने धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है-”चोदनालक्षणोंऽर्थों धर्म“8 अर्थात उपदेश से आज्ञा से किंवा विधि से ज्ञात होने वाला श्रेययस्कर अर्थ ‘धर्म’ है। महर्षि कणाद ने धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है-”यतोऽभ्युदयनिः श्रेयस सिद्धिः सः धर्मः“9 अर्थात जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि (प्राप्ति) होती है वही धर्म है।
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Pages:17-23
रीना शर्मा (हिन्दी विभाग, महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक)